Saturday 2 April 2016

यह लेख सच्चाई है

श्री शंकर शरण का यह लेख अवश्य पढ़ें:
असदुल्ला ओवैसी की हँसी उड़ाना एक भूल है। उनका भारत माता की जय, के विरुद्ध बयान एक पुरानी राजनीतिक परंपरा है। समय-समय पर मुसलमानों को उन के नेता शिक्षा देते रहते हैं। यह उसी की एक कड़ी है। ओवैसी ने एक बहाना भर खोजा। अन्यथा कोई प्रसंग नहीं था। आखिर उन्हें तो किसी ने यह जय बोलने के लिए नहीं कहा था। आर.एस.एस. प्रमुख ने नई पीढ़ी को देशभक्ति से जोड़ने की बात की थी। वैसे भी, मुसलमानों को अलग से देश-भक्ति का पाठ पढ़ाना निरर्थक कवायद है। उनके नेता उन्हें सचेत रूप से इस से दूर करते हैं। जमाते इस्लामी द्वारा वंदे-मातरम के विरुद्ध फतवा पहले से दिया हुआ है। अतः जब तक मुस्लिम अपने मजहबी नेताओं की फतवा संस्कृति से मुक्त नहीं हों, उन्हें मानवीय, विवेकशील बातें कहना लगभग व्यर्थ है।

डॉ. अंबेदकर ने इसे समझा था, तभी कहा था- ‘‘मुस्लिम राजनीति अनिवार्यतः मुल्लाओं की राजनीति है और वह मात्र एक अंतर को ही मान्यता देती है – हिन्दू और मुसलमानों के बीच मौजूद अंतर। जीवन के किसी भी धर्मनिरपेक्ष तत्व का मुस्लिम समुदाय की राजनीति में कोई स्थान नहीं है, और वे मुस्लिम राजनीतिक जमात के केवल एक ही निर्देशक सिद्धांत के आगे नतमस्तक होते हैं, जिसे मजहब कहा जाता है।’’ यह इतना पक्का है कि यदि कोई मुस्लिम भी राष्ट्रीय, मानवीय, विवकशील बातें करे तो तुरंत उस पर फतवा दे दिया जाता है।

यह केवल भारत की बात नहीं। एसिया, यूरोप, अमेरिका तक यही स्थिति है। जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, वहाँ भी वे देश के हितों से निर्विकार केवल इस्लामी माँगें बढ़ाने की फिराक में रहते हैं। क्योंकि इस्लाम उन्हें उस देश को ‘लड़ाई की जगह’ (दारुल-हरब) मानना सिखाता है, यानी ऐसी जगह जिस पर इस्लामी कब्जा होना बाकी है। भारत, इंग्लैंड, आदि वैसे ही देश हैं जहाँ मुसलमानों के लिए वतन-परस्ती बनाम दारुल-हरब की दुविधा स्थाई बनी रहती है। इसलिए ओवैसी की नाटकीय बयानबाजी नाटक नहीं है। अपने बयान से उन्होंने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा, किन्तु उनकी बात गंभीर है। उस में एक बुनियादी सत्य है जिस का उत्तर देना तो दूर, भारत के हिन्दू नेता उसे आँख मिला कर देखना तक नहीं सीख सके हैं। यह स्थिति लगभग सौ सालों से है।

आखिर जिन्ना का द्वि-राष्ट्र सिद्धांत क्या था? खलीफत आंदोलन क्या था? मौलाना आजाद का ‘हिजबुल्ला’ (अल्लाह की पार्टी) या अल्लामा इकबाल के ‘शिकवा’ का क्या संदेश था? हाली के ‘मुसद्दस’ में क्या कशिश थी? सब में मूल बात यही थी कि इस्लाम को हू-ब-हू मानने वाले के लिए न तो भारत माता कोई चीज है, न देश-भक्ति, न हिन्दू-मुस्लिम सहमेल। सो या तो केवल मुसलमान भारत पर शासन करेंगे, या अलग रहेंगे। इस उसूल को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारत के नेता मोहनदास हैं या मोहनराव। न ही इससे कि कितने करोड़ मुसलमान देशभक्त हैं और हिन्दुओं के साथ मिल-जुल कर रहना चाहते हैं।
बात जब उसूल की हो तो सचाई बेबाक है। मसला उसी का सामना करने का है, चाहे वह हिन्दू हों या मुसलमान। उन्हें सोचना है और अपना कर्तव्य तय करना हैः इस्लाम बड़ा या देश-भक्ति? इस सवाल से कतराने का मतलब है खुद को धोखा देना।
इस उसूल को अल्लामा इकबाल ने सटीक व्यक्त किया था – “इन ताजा खुदाओं में सब से बड़ा वतन है। जो पैरहन है उस का वो मजहब का कफन है।” यानी वतन-परस्ती इस्लाम के लिए मौत समान है। इसलिए वतन-परस्ती को गलत बताते हुए इकबाल कहते हैं, “कौम मजहब से है; मजहब जो नहीं, तुम भी नहीं। जज्बे बाहम जो नहीं, महफिले अंजुम भी नहीं” । इसी को उन्होंने ऐसे भी कहा था, “मुस्लिम हैं हम / वतन है, सारा जहाँ हमारा”। यानी, इस्लाम के अनुसार वतन-परस्ती बुतपरस्ती का ही एक रूप है, जिस से उसे घृणा है। अभी ओवैसी ने उसी बात को दुहराया है। जिस का जवाब गाँधीवाद, नेहरूवाद या वर्तमान ‘विकास’-वाद के पास नहीं है।

इसलिए नहीं है क्योंकि सब इस्लामी सिद्धांत की आलोचना से बचना चाहते हैं। सचाई का सामना ही नहीं करना चाहते। केवल करोडों सज्जन, सामान्य मुसलमानों की सहजता के उदाहरण से दिखाना चाहते हैं कि सब ठीक-ठाक है। मानो जिन्ना या ओवैसी, जैसे कुछ राजनीतिबाज गड़बड़ करते हैं। इस तरह, अपने को भुलावा देकर सभी उस सिद्धांत को बिना चुनौती दिए छोड़ देते हैं, जो मुसलमानों को हिन्दुओं से, और देश-भक्ति, सहज बुद्धि, विवेक, आदि से भी दूर रखता है।
तब, समय आने पर जब इस्लामी उसूल मुसलमानों पर अपना प्रभाव दिखाता है, और मुसलमान उसे स्वीकार करते हैं, तो गाँधी-नेहरू जैसा पूरा हिन्दू नेतृत्व खिसियाया, ठगा सा खड़ा रह जाता है। क्योंकि उस ने इस्लामी सिद्धांत की आलोचना करने और मुसलमानों को विवेकशील बनाने का काम हाथ में लिया ही नहीं!

वे खुद भ्रम में थे और हैं, क्योंकि इस्लाम को केवल धर्म, ईश्वर, आदि से जोड़कर देखने में असल चीज नहीं देख पाते। मतलब कि इस्लाम राजनीतिक विचारधारा भी है, बल्कि यही उस का प्राण-तत्व है। खुद अयातुल्ला खुमैनी ने कहा था कि ‘‘पूरा इस्लाम ही राजनीति है।’’ तब राजनीति की, किसी राजनीतिक विचार की आलोचना न करना उसे वाक-ओवर देने के समान है। हिन्दू नेतृत्व पिछले सौ साल से यही गलती करता रहा, और इस से मुसलमानों के साथ साथ हिन्दुओं की भी घोर हानि होती रही है। इस्लाम मूलतः राजनीति ही है, इसे सरलता से परखा जा सकता है। इस्लामी संस्थाएं या नेतृत्व के बयान, प्रस्ताव, माँगें, कार्रवाइयाँ या समाचार प्रायः राजनीतिक प्रभाव के साथ ही आते हैं। दशकों से इस का अपवाद ढूँढना कठिन है। ‘वन्दे मातरम्’ या ‘भारत माता की जय’ कहने का विरोध स्वयं इसी का उदाहरण है। यदि इस्लाम मूलतः राजनीतिक विचारधारा न होता, तो किसी देश के निवासी को अपने देश की जयकार करने से क्यों रोकता? यह प्रश्न गंभीरता से विचार करने का है। ऊपर इकबाल के कथन पर ध्यान दें। इस्लाम अपने अनुयायियों पर संपूर्ण कब्जा चाहता है। वह सर्वाधिकारी, तानाशाही विचारधारा है।

इसीलिए उसे अपनी राजनीतिक भक्ति में भी हिस्सेदारी पसंद नहीं। यदि मुसलमान देशभक्त हों, विशेषकर ऐसे देश में जहाँ वे बहुसंख्यक नहीं, तो वे देश के सामने इस्लामी कानूनों को नीचा मानेंगे। तब शरीयत, दारुल-इस्लाम, जिहाद, निजामे-मुस्तफा, आदि का क्या होगा? इसलिए, केवल भावुकता और व्यंग्य से ओवैसी को हराने की कल्पना करना बचकानी बुद्धि है। ओवैसी मजबूत जमीन पर खड़े हैं। उस जमीन को खिसकाए बिना उन की बात को निर्णायक रूप से हराना नामुमकिन है। इसे मुसलमान बखूबी जानते हैं। अच्छा हो, हिन्दू भी जानें। वरना वे गाँधी और कश्मीरी पंडितों की तरह बार-बार मुँह की खाते रहेंगे।

यह समझना चाहिए कि समस्या ओवैसी या जमाते इस्लामी नहीं हैं। समस्या वह विचारधारा है जो उन्हें निर्देशित करती रही है। इसलिए लड़ना उस विचारधारा से ही होगा। पर हमारे नेता, बुद्धिजीवी ऐसा नहीं करते। उलटे, इस्लामी निर्देशों की ही सकारात्मक व्याख्या या किसी मनपसंद सूफी को ढूँढने लगते हैं। इस कवायद से उलटा फल मिलता है। उलेमा का अपने उसूल पर भरोसा और बढ़ जाता है कि इस्लामी निर्देश देश, समाज, मानवता आदि हर चीज से ऊपर हैं।
ध्यान दें, कि भारत के मुसलमान हर चीज में हिन्दुओं जैसे ही हैं। तब उन्हें कौन सी चीज हिन्दुओं से अलग करती है, और इस अलगाव पर बल देती है? इस प्रश्न का सचाई से सामना करना जरूरी है। तभी समस्या की पहचान होगी और समाधान भी मिलेगा।

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