आज दोपहर मेरे एक परिचित मुस्लिम सज्जन जो काफी पढ़े लिखे हैं और एक अच्छे पद पर कार्यरत हैं, किसी काम से मुझसे मिलने आये। दुनिया जहान की बातों के बीच अचानक जिक्र छिड़ गया राजनैतिक इफ्तार पार्टियों का। मैं नेताओं द्वारा गोल टोपी पहन पहन कर इनमें शामिल होने को नौटंकी और बेमतलब करार दे रहा था और वे इसे गंगा-जमुनी तहज़ीब, भाईचारा, कौमी यकजहती जैसे भारी भारी लफ़्ज़ों के ज़रिये जायज ठहरा रहे थे।
राष्ट्रपति द्वारा दी गयी इफ्तार पार्टी का जिक्र करते हुए उन्होंने इस बात पर बहुत जोर दिया कि मोदी जी को इसमें शामिल होना चाहिए था और ऐसा ना करके उन्होंने मुसलमानों के जज्बातों को ठेस पहुंचाई है। मेरे द्वारा ये कहने पर कि भाई साहब, वे जन्मना हिंदू हैं, बचपन से मंदिर मठों में गए हैं, इस्लामिक रीति रिवाजों से उनका दूर दूर तक का वास्ता नहीं रहा तो ऐसे में उनका गोल टोपी लगाकर खजूर खींचने का क्या औचित्य, वे सज्जन मुझसे असहमत होकर बड़ा भावुक सा होते हुए बोले कि इसी तरह की सोच ने मुल्क का चैन ओ अमन बिगाड़ रखा है, नफरत की आँधियों को चला रखा है, दिलों में ज़हर को फैला रखा है। हमें दिल मिलाने होंगे, एक दूसरे के तीज त्यौहारों में शामिल होना होगा, कुछ मन मार कर भी एक दूसरे के जज़्बातों की कद्र करनी होगी और तभी ये मुल्क शान ए जहान बनेगा।
सुन कर बड़ा अच्छा सा लगा उनकी इस तक़रीर को। मैंने उनके सामने कुछ आम रखते हुए कहा--और तो फिलहाल कुछ है नहीं आपके सामने पेश करने को। इसी को नोश फरमाएं, अपनी शानदार बात की ख़ुशी में। वे बोले लंच में भी आम लेकर आते हैं आप। मैंने बड़े इत्मीनान से उनके चेहरे पर अपनी नज़रें गडाकर कहा--मंदिर गया था रास्ते में, तो पुजारी जी ने प्रसाद में ये दो आम दे दिए। (हालाँकि वो आम प्रसाद के नहीं थे।)
अचानक सामने का चमकता चेहरा बदरंग सा होने लगा, आंखें मेरी ओर देखने के बजाय इधर उधर देखने लगीं और खनकदार आवाज की जगह फुसफुसाहट सी सुनाई दी-- प्रसाद खाना हराम है ईमान वाले मोमिन के लिए। मैंने कहा, प्रसाद नहीं, आम समझ कर खा लीजिये। तो वे साहब बोले कि होकर तो मंदिर स हीे आया है न ?
उनका इतना कहना भर था कि थोड़ी देर पहले उनके ही द्वारा बड़े अंदाज़ में बोला गया 'भाईचारा' उनकी मजहबी कटटरता का 'चारा' बन गया, 'कौमी यकजहती' किसी कोने में बेबस सिसकती नज़र आई और 'गंगा-जमुनी तहज़ीब', उसका तो भीषण बलात्कार ही हो गया। अब उनके खुद के और उनके भाई बंधुओं के कुकर्मों से पीड़ित-प्रताड़ित इन सब का ख्याल मैं या मेरे भाई बंधु रखेंगे, कम से कम ये आशा तो उन्हें कदापि नहीं रखनी चाहिए।
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Sunday, 26 July 2015
एक कहानी यह भी पढें,फिर सोचें
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