स्वर्गीय पंडित श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित 'हल्दीघाटी' के ग्यारहवें सर्ग की एक बानगी देखिये:
वारिद के उर में चमक-दमक तड़-तड़ बिजली थी तड़क रही,
रह-रह कर जल था बरस रहा रणधीर-भुजा थी फड़क रही।
था मेघ बरसता झिमिर-झिमर तटिनी की भरी जवानी थी,
बढ़ चली तरंगों की असि ले चण्डी सी वह मस्तानी थी।
वह घटा चाहती थी जल से सरिता-सागर निर्झर भरना,
यह घटा चाहती शोणित से पर्वत का कण-कण तर करना।
धरती की प्यास बुझाने को वह घहर रही थी घन-सेना,
लोहू पीने के लिए खड़ी यह हहर रही थी जन-सेना।
नभ पर चम-चम चपला चमकी चम-चम चमकी तलवार इधर,
भैरव अमन्द घन-नाद उधर दोनों दल की ललकार इधर।
वह कड़-कड़-कड़-कड़ कड़क उठी यह भीम-नाद से तड़क उठी,
भीषण संगर की आग प्रबल वैरी-सेना में भड़क उठी।
डग-डग-डग-डग रण के डंके मारू के साथ भयद बाजे,
टप-टप-टप घोड़े कूद पड़े कट-कट मतंग के रद बाजे।
कलकल कर उठी मुग़ल-सेना किलकार उठी ललकार उठी,
असि म्यान विवर से निकल तुरत अहि-नागिन सी फुफकार उठी।
शर-दण्ड चले कोदण्ड चले कर की कटारियाँ तरज उठीं,
खूनी बरछे-भाले चमके पर्वत पर तोपें गरज उठीं।
फर-फर-फर-फर-फर फहर उठा अकबर का अभिमानी निशान,
बढ़ चला कटक लेकर अपार मद-मस्त द्विरद पर मस्त मान।
कोलाहल पर कोलाहल सुन शस्त्रों की सुन झंकार प्रबल,
मेवाड़-केसरी गरज उठा सुन कर अरि की ललकार प्रबल।
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घनघोर घटा के बीच चमक तड़तड़ नभ पर ताड़ित तड़की,
झन-झन असि की झनकार इधर कायर-दल की छाती धड़की।
अब देर न थी बैरी-वन में दावानल के सम छूट पड़े,
इस तरह वीर झपटे उन पर मानो हरि मृग पर टूट पड़े।
मरने-कटने की बान रही पुश्तैनी इससे आह न की,
प्राणों की रंचक चाह न की तोपों की भी परवाह न की।
रण-मत्त लगे बढ़ने आगे सिर काट-काट करवालों से,
संगर की मही लगी पटने क्षण-क्षण अरि-कण्ठ-कपालों से।
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गज गिरा मरा पिलवान गिरा हय कट कर गिरा निशान गिरा,
कोई लड़ता उत्तान गिरा कोई लड़कर बलवान गिरा।
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निर्बल बकरों से बाघ लड़े भिड़ गये सिंह मृगछौनों से,
घोड़े गिर गए गिरे हाथी पैदल बिछ गये बिछौनों से।
हाथी से हाथी जूझ पड़े भिड़ गये सवार सवारों से,
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े तलवार लड़ी तलवारों से।
हयरुण्ड गिरे गज-मुण्ड गिरे कट-कट अवनी पर शुण्ड गिरे,
लड़ते-लड़ते अरि-झुण्ड गिरे भू पर हय विकल वितुण्ड गिरे।
क्षण महाप्रलय की बिजली सी तलवार हाथ की तड़प-तड़प,
हय-गज-रथ-पैदल भगा-भगा लेती थी बैरी-वीर हड़प।
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होती थी भीषण मार-काट अतिशय रण से छाया था भय,
था हार-जीत का पता नहीं क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।----------कोई हिन्दी का प्रगतिशील साहित्यकार इस तरह की कविता लिख के दिखा दे तो जाने!
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Saturday, 26 December 2015
कविता की यह बागी देखिये
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